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हिंदी टालोचना का यह गदर काल

आज भांति-भांति के आलोचक हैं और भांति-भांति की आलोचना! यकीन न हो, तो किसी भी पत्रिका के आलोचना और ‘रिव्यू’ पेजों और सोशल मीडिया में आलोचना के नाम पर बंटती रेवडियों को देख लीजिए। ये दो-चार आचार्यों...

हिंदी टालोचना का यह गदर काल
Monika Minalसुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकारSat, 15 Jun 2024 10:02 PM
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आज भांति-भांति के आलोचक हैं और भांति-भांति की आलोचना! यकीन न हो, तो किसी भी पत्रिका के आलोचना और ‘रिव्यू’ पेजों और सोशल मीडिया में आलोचना के नाम पर बंटती रेवडियों को देख लीजिए। ये दो-चार आचार्यों का जमाना नहीं है, बल्कि असंख्य आलोचकों, यानी टालोचकों का जमाना है।
आज हरेक टालोचक के पास अपनी नजर और अपना नजरिया है। एक कहता है, इस कृति को ऐसे देखो। दूसरा कहता है कि उस तरह से देखो। तीसरा कहेगा कि इधर से देखो। चौथा कहता है, उधर से देखो। पांचवां कहता है कि यहां से देखो, तो छठा कहेगा, वहां से देखो। आज देखने वाले से कहीं अधिक दिखाने वाले हैं, जो कहते हैं, जैसे हम देखते हैं, वैसे ही देखो!  इस ‘टालोचना’ की यही नई तानाशाही है, जो कहती है कि देखो, तो हमारे कहे अनुसार, वरना न देखो! यह टालोचना देखने-दिखाने की ‘डिक्टेटरी’ है!
कुछ ऐसे टालोचक भी हैं, जो किसी भी रचना पर सवारी गांठने लगते हैं कि लेखक ने कविता-कहानी में यह...यह...यह क्यों नहीं लिखा? अगर ये सब लिखता, तभी सही लेखक होता। इसका मतलब यह कि सौ बरस पहले लिख चुका लेखक दोबारा जन्म लेकर इन महाशय का ‘सर्टिफिकेट’ लेकर जाए! इनका बस चले, तो प्रसाद की कलम पर ही बैठ जाएं और चाहें, तो कालीदास को ‘नालीदास’बना दें!  
इन दिनों हिंदी में कुछ ऐसे टालोचक भी हैं, जो लेखक की जाति बताते हुए उसके लेखन को उसकी जाति का पर्याय बताते हैं। इनके अनुसार, सारा लेखन सिर्फ जाति-लेखन है। अब जाति ही लिखें, जाति ही पढ़ें और जाति ही सुनें। यह तो टुकडे़-टुकडे़ टालोचना है। कुछ टालोचक ऐसे हैं, जो राई ते परबत करै, परबत राई मांहि! कुछ ‘पेड टालोचक’ भी हैं, यानी ‘पे’ करो और जो चाहो लिखवा लो!
पहले लोग आलोचना को सिंहावलोकन या विहंगावलोकन कहते थे, लेकिन आज के टालोचक सिर्फ हिंसावलोकन करते हैं। कई ऐसे कथित प्रगतिशील टालोचक भी हैं, जो ‘फिक्सर’ का काम करते हैं, जो इनकी ‘लाइन’ का नहीं, वह प्रतिक्रियावादी, सांप्रदायिक, हिंदुत्ववादी और फासिस्ट है। टालोचना के गेट पर ये टालोचक दोनाली लेकर बैठे रहते हैं।
यूं तो अपने यहां साहित्यशास्त्र के छह स्कूल मौजूद हैं। उधर-पश्चिम की आलोचना संरचनावाद से उत्तर-संरचनावाद और विखंडन तक आ चुकी है, पर हिंदी की टालोचना रेवड़ीवाद से आगे नहीं गई। अब जब गाली को ही आलोचना समझ लिया जाए, तो कुछ पढ़ने-लिखने की क्या जरूरत!
आलोचना का अर्थ है, ‘रचना को सम्यक भाव से देखना, परखना और फिर मूल्यांकन करना...।’ लेकिन आज की टालोचना का अर्थ है, किसी को उठाना, किसी को गिराना, किसी की मालिश करना, किसी की पॉलिश करना, किसी की नालिश करना और किसी के खिलाफ साजिश करना। अब न कोई टालोचना का महाबली है, न अल्पबली है, बल्कि जो हैं, वे गालियों के बाहुबली हैं, इसीलिए आज की टालोचना में कई ‘गैंग’ और ‘गैंगस्टर’ हैं, जिनमें कभी-कभी ‘गैंगवार’ भी हो जाती है। 
कुछ पंजीरी टालोचक भी हैं, जो हर किसी को अपनी टालोचना की पंजीरी बांटते रहते हैं। इस पंजीरी टालोचना का शुभारंभ भी हिंदी के अंतिम महाबली ने किया था। वह हर हफ्ते जिस-तिस की रचना की ऐसी तारीफ कर देते कि लगता, अभी-अभी हिंदी में ‘ब्रेख्त’ या ‘गोर्की’ हुआ है। इस पंजीरी टालोचना से वह हिंदी में अनगिनत ब्रेख्तों और गोर्कियों की फोटो कॉपियों का घूरा बना गए, जो बदबू देता रहता है! 
जाहिर है, हिंदी आलोचना का खूंटा उखड़ गया है। आज इसमें न कोई मान है, न मानक है, इसीलिए हमने उसे टालोचना कहा और इसी कारण हिंदी टालोचना में गदर मचा दिखता है।