दल छोड़कर लोकसभा अध्यक्ष बनना चाहिए
अध्यक्ष महोदय (जीवी मावलंकर) पूर्व वक्ताओं के साथ-साथ मैं भी आपको लोकसभा अध्यक्ष बनने पर बधाई देता हूं तथा श्रद्धा अर्पित करता हूं। आप इस पद के लिए कोई नवागन्तुक तो नहीं हैं। आप भूतपूर्व केंद्रीय...
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अध्यक्ष महोदय (जीवी मावलंकर) पूर्व वक्ताओं के साथ-साथ मैं भी आपको लोकसभा अध्यक्ष बनने पर बधाई देता हूं तथा श्रद्धा अर्पित करता हूं। आप इस पद के लिए कोई नवागन्तुक तो नहीं हैं। आप भूतपूर्व केंद्रीय धारा सभा के अध्यक्ष तथा बाद में अस्थायी संसद के अध्यक्ष रह चुके हैं, जिस हैसियत में आपको उचित परंपराओं तथा प्रथाओं की स्थापना करनी पड़ी है। अत: स्वतंत्र भारत की पहली निर्वाचित संसद का अध्यक्ष निर्वाचित होने का भी आपको सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वास्तव में, भारत के सांविधानिक इतिहास में आपका एक अपना विशिष्ट स्थान है।
मुझे तनिक भी संदेह नहीं कि आपके हाथ में माननीय सदस्यों के अधिकार सुरक्षित रहेंगे। हम सामान्यत: ब्रिटिश लोकसभा की प्रथाओं तथा परंपराओं का ही अनुसरण करते रहेंगे, किंतु ऐसी परिस्थितियों के उत्पन्न होने की संभावना है, जब हमें उन परंपराओं में परिवर्तन करके अपनी स्वयं की प्रथाएं स्थापित करने की आवश्यकता पड़ेगी, क्योंकि हमारा परम लक्ष्य जन-साधारण का कल्याण तथा देश की प्रगति है।
अध्यक्ष का निर्वाचन जिस ढंग से हुआ है, मैं उससे अधिक प्रसन्न नहीं हूं। यदि आप एक पार्टी के उम्मीदवार के रूप में खडे़ न होकर एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में पुनर्निर्वाचन के लिए खड़े होते, तो हमें अधिक प्रसन्नता होती। सारे संसार की यह मानी हुई परंपरा है तथा अध्यक्ष का कोई विरोध नहीं करता है। यदि इस सदन के नेता निर्वाचन के लिए आपका नाम प्रस्तुत करने से पूर्व विरोधी दल से परामर्श कर लेते, तो शायद अध्यक्ष का निर्वाचन सर्वसम्मति से हो जाता। मुझे मालूम नहीं है कि ऐसा क्यों नहीं किया गया। कहने का आशय यह है कि परंपराओं तथा प्रथाओं की स्थापना तथा पालन करना हम सबका कर्तव्य होना चाहिए, चाहे हम सरकारी पक्ष मेें बैठे हों अथवा विरोधी पक्ष में।
स्वतंत्र भारत में यह पहला अवसर है, जब संसद में विरोधी दल के सदस्यों की संख्या काफी अधिक है, यद्यपि यह मानी हुई बात है कि सरकारी पक्ष के पास सदन में भारी बहुमत है। ऐसी दशा में श्रीमान, आप इस बात की ओर ध्यान देंगे कि सरकारी तथा विरोधी, दोनों पक्षों द्वारा परंपराओं तथा प्रथाओं का पालन किया जाए। लोकतंत्र के विकास के लिए यह आवश्यक है। ऐसे कठिन कार्य में, श्रीमान, यह आपका कार्य है कि आप सदन की कार्यवाही को ठीक ढंग से चलाएं, जिससे कि यद्यपि कुछ मामलों में हमारे पारस्परिक मतभेद हों, किंतु हमें अपने विचार सदन के समक्ष रखने का तथा सरकार की मनमानी कार्रवाइयों को किसी हद तक रोकने का मौका मिले। श्रीमान, मैं विरोधी दल के सदस्यों की ओर से आपको आश्वासन दिलाना चाहता हूं कि सदन की शान तथा इसके अधिकारों के लिए उचित परंपराएं तथा प्रथाएं स्थापित करने के आपके प्रयत्न में वे सदैव आपको सहयोग देते रहेंगे।...
यहां पर अनेक दलों के प्रतिनिधि मौजूद हैं। हमारे दृष्टिकोण भिन्न हैं, किंतु देशहित के लिए हमें ऐसा निश्चय करना चाहिए, जिससे हमारी सामान्य जनता को लाभ पहुंचे। यदि हम अपने मतभेदों को दूर न कर सके, तो अवश्य ही तानाशाही का इस देश में राज्य होगा। ...हमें कानून का सम्मान करना चाहिए और यह बात ठीक भी है। इस संसद द्वारा बनाए गए कानूनों को मानना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है, किंतु यहां पर कानून इस प्रकार से बनाए जाने चाहिए, जिसमें उसे प्रत्येक दल का सहयोग प्राप्त रहे। यदि बहुमत के बल पर कानून बनाए गए- जिन्हें साधारण जनता पसंद नहीं करती- तो उन्हें अवश्य ही भंग किया जाएगा। कानूनों को हिंसक ढंग से नहीं, अहिंसक ढंग से भंग किया जाएगा, किंतु मैं आशा करता हूं, हम सब अपना-अपना कर्तव्य ठीक प्रकार से निभा सकेंगे। मतभेदों के होते हुए भी हम ऐसे निश्चय पर पहुंचेंगे, जिससे जन साधारण को लाभ होगा।
(लोकसभा में दिए गए दो उद्बोधनों के अंश)
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