घातक आरामतलबी
कहने को तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर जागरूकता बढ़ी है और विभिन्न प्रकार के रोगों को लेकर शोध एवं अनुसंधान के क्षेत्र में पहले के मुकाबले निवेश भी बढ़ा है, मगर विश्व स्वास्थ्य संगठन...
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कहने को तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर जागरूकता बढ़ी है और विभिन्न प्रकार के रोगों को लेकर शोध एवं अनुसंधान के क्षेत्र में पहले के मुकाबले निवेश भी बढ़ा है, मगर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के शोधार्थियों ने अपने हालिया अध्ययन के आधार जो नए तथ्य उजागर किए हैं, वे एक बड़ी चुनौती की ओर इशारा कर रहे हैं, बल्कि एक अलग किस्म की चिंता पैदा करते हैं। द लांसेट में प्रकाशित यह अध्ययन-रिपोर्ट बताती है कि विश्व भर के वयस्कों की एक तिहाई से भी अधिक आबादी या 1.8 अरब वयस्क शारीरिक गतिविधि के अपेक्षित स्तर पर खरे नहीं उतरते, यानी वे पर्याप्त शारीरिक श्रम नहीं कर रहे हैं। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि पिछले बारह वर्षों में वयस्कों में शारीरिक निष्क्रियता की प्रवृत्ति पांच फीसदी बढ़ गई है और यही प्रवृत्ति बनी रही, तो 2030 तक ऐसे वयस्कों की संख्या 31 प्रतिशत से बढ़कर 35 फीसदी हो जाएगी। डब्ल्यूएचओ की साफ सिफारिश है कि वयस्कों को हर हफ्ते 150 मिनट तक मध्यम गति वाली या 75 मिनट तक तेज शारीरिक गतिविधि करनी चाहिए। ऐसे में, ताजा आंकडे़ परेशान करने वाले हैं, क्योंकि शारीरिक निष्क्रियता वयस्कों में हृदय संबंधी रोग के साथ-साथ मधुमेह, डिमेंशिया व कुछ खास तरह के कैंसर का जोखिम बढ़ा देती है।
विडंबना यह है कि पश्चिम के विकसित देशों के मुकाबले आरामतलबी या शारीरिक निष्क्रियता की दर एशिया प्रशांत क्षेत्र और दक्षिण एशिया के वयस्कों में बहुत अधिक दर्ज की गई है। पश्चिम के उच्च आय वाले विकसित देशों के वयस्कों में जहां यह निष्क्रियता-दर 28 फीसदी पाई गई, वहीं एशिया प्रशांत क्षेत्र के उच्च आय वाले देशों के वयस्कों में 48 प्रतिशत और दक्षिण एशियाई संपन्न देशों में 45 फीसदी देखी गई है। साफ है, एशियाई सरकारों के लिए खतरे की सूचना है, क्योंकि यह प्रवृत्ति हृदय रोगों और कैंसर की रोकथाम की उनकी कोशिशों को पलीता लगा सकती है। डब्ल्यूएचओ में स्वास्थ्य संवर्द्धन के निदेशक डॉ रुडिगर क्रेच ने उचित ही कहा है कि शारीरिक निष्क्रियता वैश्विक स्वास्थ्य के लिए एक मूक खतरा है, जो पुरानी बीमारियों का बोझ बढ़ाती है।
बेहतर आर्थिक स्थिति वाले देशों, खासकर दक्षिण एशियाई मुल्कों के वयस्कों में शारीरिक निष्क्रियता क्यों बढ़ रही है, इसको जानने के लिए किसी नजूमी की जरूरत नहीं है। उम्र के जिस हिस्से में वे हैं, उसमें उनका करियर लगभग तय हो चुका है और उनकी जीवन शैली भी एक खास शक्ल अख्तियार कर चुकी है। यहां के ज्यादातर वयस्क अधिक से अधिक सुविधाओं के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। वे स्कूटर से कार और फिर कार के आगे हवाई सफर को जरूरत से ज्यादा अपनी हैसियत से जोड़कर देखते हैं। पैदल चलना या सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करना उनकी निगाह में पिछडे़पन की निशानी ही है। इसके बरक्स यूरोप के लोगों की सोच अलग है। मिसाल के तौर पर, चौदह वर्षों तक नीदरलैंड के प्रधानमंत्री रहे मार्ट रट ने हाल ही में जब अपना इस्तीफा दिया, तो अपने उत्तराधिकारी को सत्ता सौंपकर साइकिल से प्रधानमंत्री दफ्तर से निकल गए। सोलह वर्षों तक जर्मनी की चांसलर रहीं एंजेला मर्केल खुद सब्जियां खरीदते हुए बाजार में दिख जाती हैं। हर सुविधा हाथ में चाहिए, इस सोच को बदलना होगा। खासकर भारत जैसे विशाल आबादी वाले व समृद्ध होते देश के वयस्कों को शारीरिक निष्क्रियता के प्रति सतर्क करने की ज्यादा जरूरत है।
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