Hindi Newsधर्म न्यूज़The mind can be controlled through meditation and prudence

ध्यान और विवेक से मन साधा जा सकता है

  • हम सबके मन में तरह-तरह के विचार आते हैं। यहां तक कि जब हम ध्यान में बैठते हैं, तब भी मन में विचार हमारा पीछा नहीं छोड़ते। जब तक हम इस मन को काबू में नहीं करते, तब तक हमें आत्मज्योति की झलक नहीं मिल सकती। इस मन को केवल ध्यान और विवेक से ही साधा जा सकता है।

Saumya Tiwari आनंद मूर्ति गुरुमां, नई दिल्लीTue, 25 June 2024 12:18 PM
हमें फॉलो करें

मन की कोई एक जगह शरीर में पक्की नहीं है। मन तो फैला हुआ है। मन वह अदृश्य शक्ति है, जो चुपचाप से अपना काम करती चली जाती है। इस शक्ति के ऊपर हम सजगता और होश के द्वारा जरूर नियंत्रण पा सकते हैं।

न में बहुत से विचार आते रहते हैं। वे विचार भी विचार बनने से पहले संस्कार रूप में, बीज रूप में मौजूद होते हैं। अच्छा-बुरा, शुभ-अशुभ, ज्ञान-अज्ञान सब तरह के संस्कार आपके मन के ऊपर अपनी छाप छोड़ते रहते हैं और ये संस्कार ही समय आने पर विचार के रूप में प्रकट होते हैं।

अब आप जब भी ध्यान में बैठें, तो उस समय अपने विचारों को होशपूर्वक पकड़ना। धीरे-धीरे होश जगने लगेगा, थोड़े-थोड़े विचार पकड़ में आने लगेंगे। जैसे विचारों की धारा शुरू करने से पहले मन अनुमति मांग रहा हो कि विचार करूं या न करूं। जहां तुम सजग हुए, वहीं विचार ठहरेंगे। जहां विचार ठहरेंगे, तब ऐसा लगेगा कि मन तो कुछ है ही नहीं।

एक ने पूछा कि ‘मन को हटाए बिना आत्मज्योति की झलक नहीं पा सकते हैं। तो मन को बीच में से हटाएगा कौन? इस मन को मारेगा कौन? यह ‘मैं’ कौन है? इस शरीर में कौन-सा ऐसा तत्व है, जो मन को मार सकता है? उसका अनुभव कैसे होगा?’

तुम पूछते हो, कौन मारेगा मन को? मैं कहती हूं, तुम्हारा ही होश मारेगा इस मन को। तुम्हारी ही सजगता इसको मारेगी।

अब यह सवाल उठ सकता है कि मन कहां है? मन बायीं ओर है या दायीं ओर है? या फेफड़ों के बीच में है? नहीं! मन तो पूरे शरीर में और शरीर के बाहर भी व्याप्त है। लेकिन हर्ष, भय जैसी हर भावना के उठने पर तुम सीने में कुछ महसूस करते हो। डर लगा तो तुम पेट में कुछ महसूस करते हो। चिंता होने लगे तो मस्तिष्क में कुछ महसूस करते हो। अलग-अलग जगह, अलग-अलग भावनाओं को हम महसूस करते हैं। लेकिन मन की कोई एक जगह शरीर में पक्की नहीं है। मन तो फैला हुआ है। मन वह अदृश्य शक्ति है, जो चुपचाप से अपना काम करती चली जाती है। इस शक्ति के ऊपर हम सजगता और होश के द्वारा जरूर नियंत्रण पा सकते हैं। फिर कहती हूं। ढूंढ़िए! फिर से ढूंढ़िए! बार-बार ढूंढ़ते रहिए कि कहां है यह मन। खोजिए, बार-बार खोजिए कि मन है कहां!

दूसरी बात इन्होंने पूछी कि, ‘कौन हूं मैं? और परमात्मा से मेरा क्या संबंध है?’ इसके बारे में शब्दों से तो मैं पता नहीं कितनी बार बोल चुकी हूं। पर शब्द काफी नहीं होते हैं, यह इस बात से साबित हो रहा है। इसलिए मैं अब और नहीं बताऊंगी कि तुम कौन हो। तुम खुद ही खोजो, कौन हो तुम? क्योंकि जो खोजने निकलेगा, असलियत में वही पाएगा। लेकिन जो खोजने से मुंह मोड़ेगा, वह कुछ भी नहीं पाएगा। तो खोजने से चूको मत, खोजो! ढूंढ़ो उस निराकार को, जो तुम्हारे ही भीतर मौजूद है। ढूंढ़ो उस अरूप परमेश्वर को, जिसके ये सारे ही रूप हैं।

अब ढूंढ़ना शुरू करना हो तो कहां से करें? दो ही जगहें हैं, जहां से तुम शुरू कर सकते हो। एक भीतर खोजने चलेंगे, तो तुम्हारे मन को खोजें। दूसरा, बाहर सद्गुरु से खोज शुरू करें। कैसे? चिंतन करने के लिए सद्गुरु के वचनों को आधार बनाएं; और ध्यान के औजार से अंदर के खजाने की खुदाई शुरू कर दें। तुम्हारे भीतर की खुदाई करने के लिए ध्यान औजार है। उससे तुम अपने ही भीतर पड़े हुए खजाने को खोज सकते हो।

इसलिए ध्यान और विवेक इन दो औजारों का अच्छी तरह उपयोग करो। दोनों का उपयोग करो। ये दोनों ही औजार सद्गुरु की कृपा से प्राप्त हो सकते हैं। फिर कह दूं, ‘सद्गुरु की कृपा से मिलते हैं’ का मतलब यह नहीं कि सद्गुरु किसी चीज की तरह ये औजार किसी-किसी को भेंट में देते हैं और किसी-किसी को नहीं देते हैं। ऐसा नहीं है। जो ले सके उसी को दे सकते हैं।

हमने तो अपनी दुकान सजा रखी है। अब हमारी दुकान के सौदे तुम तब ही हासिल कर सकोगे, जब तुम उनकी कीमत अदा करोगे। तो कीमत अदा करो और माल उठाओ! ईमानदारी, मुमुक्षुता, निरपेक्ष प्रेम, अहंकार का प्रेमपूर्वक समर्पण, यही है कीमत। यही मोल है हमारे सौदों का। एक समर्पण होता है तकलीफ देनेवाला। बड़ा डरता है बंदा। समर्पण करना तो नहीं चाहता था, पर करना पड़ रहा है। कई लोग गुरु की शख्सीयत के द्वारा धरे से रह जाते हैं। वे समर्पण तो नहीं करना चाहते, पर गुरु अपनी ताकत से उनसे जबरदस्ती समर्पण करवा लेता है। पर मैंने यह भी देखा है कि इस तरह गुरु किसी को अपनी शक्ति से चमत्कृत कर अपना बना भी ले, तो भी उसका दिल अगर अंदर से समर्पण के लिए राजी न हो, तो आज नहीं तो कल, कभी-न-कभी वह पीछे हट जाता है, बिलकुल हट जाता है।

गुरुजन या फकीर कभी-कभी कृपा करके किसी का दिल अपनी तरफ खींच लेते हैं। लेकिन सच बात तो यह है कि मजा तो इसी में है, जहां फकीर को तुम्हारे लिए मेहनत न करनी पड़े और तुम जाकर खुद ही अपना दिल रख दो उसके कदमों में। तो ही बात ज्यादा अच्छे ढंग से हो जाती है क्योंकि उसमें फिर तुम खुद निर्णय लेते हो समर्पण का।

यह खेल इतना आसान भी नहीं है। ये भी कह दूं कि चाहे गुरु की तरफ से कृपा हो जाए या चाहे आप ही खुद यह निर्णय अपनी तरफ से ले लो; लेकिन किसी भी तरीके से गुरु-चरणों में मन अटक जाए, सद्गुरु के साथ मन जुड़ जाए, तो इस मार्ग की यात्रा कुछ सुखद हो जाती है, कुछ आसान हो जाती है। इस राह पर चलना है तो बड़ा मुश्किल। निश्चित ही मुश्किल है, लेकिन प्रेम और समर्पण की वजह से थोड़ी-सी आसानी हो जाती है।

सद्गुरु से प्रेम करते करते मां-पिता, भाई-बंधुओं से, घर-परिवार से मन कब हट गया, इसका पता भी नहीं चलता। फिर एक समय ऐसा आता है कि हृदय से उसका ध्यान हटता ही नहीं। कहां वह स्थिति जब ध्यान कोई लगता ही नहीं था, और कहां यह स्थिति कि ध्यान हटता ही नहीं।

ऐप पर पढ़ें